क़दम तो बढ़ा पहले डर छोड़ के,
कभी देख तो अपना घर छोड़ के।
वही जिनको ख़ुद पे भरोसा न था,
वो घर लौट आए सफ़र छोड़ के।
यहाँ भी तो राहत नहीं क्या करें,
कहाँ जायें आख़िर नगर छोड़ के।
परिन्दे न जाने कहाँ उड़ गये,
शिकारी के डर से शजर छोड़ के।
तेरे बिन ये किस काम की ज़िन्दगी,
क़सम है गया अब अगर छोड़ के।
फिरूँ दर-बदर यूँ बता कब तलक,
कहाँ जाऊँ अब तेरा दर छोड़ के।
न बच्चों से इन्साफ़ तूने किया,
इन्हें इस क़दर बेहुनर छोड़ के।
लुटा के मुहब्बत चले जायेंगे,
ज़माने के दिलपर असर छोड़ के।
‘सौरभ’……