ज्यादा लाड बच्चों की आदत बिगाड़ देती है ।
दुषित हवा लोगों की सेहत बिगाड देती है ।।
जो जीवन में भटक जाते हैं इतने बुरे भी नही होते ।
अच्छे अच्छों को बुरी संगत बिगाड़ देती है ।।
सिर्फ चाँदनी रात मे ही तुम निकलना घर से बाहर ।
सूरज की तेज रोशनी रंगत बिगाड़ देती है ।।
उद्यान की कलियों खुद को बचाकर रखो तुम
भ्रमर को तो पुष्प की चाहत बिगाड़ देती है ।।
मुमकिन नही कि पैसे से किसी का पेट भर जाये
ज्यादा पाने की चाहत अकसर इज्जत बिगाड़ देती है
इंसा बनाकर भेजा था हमको खुदा ने दुनियाँ में
हिंदू – मुसलमाँ बनाकर हमें सियासत बिगाड़ देती है
और सुधरना चाहा जब भी वतन के नौजवानो ने
राज” उनहे हमारी बिगड़ी हुई विरासत बिगाड़ देती है ।
राज कुमार गुप्ता – “राज“
“मुमकिन नही कि पैसे से किसी का पेट भर जाये
ज्यादा पाने की चाहत अकसर इज्जत बिगाड़ देती है”
Kya khoobsoorat lines hai. Rest of the poem is also great. Loved reading it.
Shishir
शुक्रिया शिशिर जी , सराहना के लिए बहुत बहुत आभार ।
बहुत खूबसूरत कविता है आपकी राज जी।
प्रतिक्रिया के लिए अनको अनेक धन्यवाद मंजूषा जी ।
very beautiful and inspiring lines. thanks a lot Raj Ji.
Thanks Devendra Ji for liking the poem & for your encouraging words .
बहुत ही सच्ची बात कही है आपने ” राजकुमार जी”
बहुत ही प्रभावी रचना………….!
Thanks Asma Ji , for your appreciation & comment .