निज हित साधन की खातिर जब दुनियाँ सच को ठुकराती है
अपना रोष प्रकट करने को कुदरत तब रौद्र रूप दिखलाती है
अपने स्वार्थ सिद्ध करने को हमने धरती को कितना लूटा है
तभी केदार और चेन्नई में मेघों का बाँध सब्र का टूटा है
बिन सोच समझ के इंसा ने यहाँ पर इतनी भीड़ बढ़ा डाली
इनके पापों को धो धो कर कई नदियां तो बन गई हैं नाली
मानव निर्मित धूएं के बिन अब जीवन की नाँव ना चलती हैँ
अक्सर इसके कारण यहाँ इंसा को प्राण वायु ना मिलती हैँ
जनहित के सब काम हो जल्दी यहाँ ऐसी ना कोई नीति हैँ
कौन करेगा अब परिवर्तन बस इस सोच में रातें बीतीं हैं
नियम तोड़ कर जश्न मनाने वालों की तो यहाँ भरमार हैँ
बाकी जनता उनके कर्मों के आगे केवल होती लाचार हैँ
राष्ट्र निर्माण का काम हो रहा ऐसा तो कहीं ना लगता है
तब भी जनता का सर कुछ परिवारों के आगे झुकता हैँ
आस्तीन के सांपों ने मिलकर यहाँ ऐसा विष डंक चुभोया हैं
देख दुर्दशा भारत की पीड़ा में अब ये आसमान भी रोया हैँ
शिशिर “मधुकर”
भौतिक साधनो की प्राप्ति के कारण उत्पन्न प्राकृतिक विक्षोभ के मार्मिक वर्णन के साथ वर्तमान हालातो पर जो प्रकाश डाला तारीफ ऐ काबिल है ! अंतिम दो पंक्तिया दिल को छु गयी !! बहुत अच्छे शिशिर जी !!
बहुत बहुत आभार निवातिया जी
आपने बिलकुल सही बात कही है अपनी कविता के द्वारा शिशिर जी। जब तक हम लोग प्रकति के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे हमेउसका हर्जाना इसीतरह बाढ़ सुनामी और भूकम्प के रूप में देना ही पड़ेगा।
मंजूषा जी कविता पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार
बहुत अच्छी रचना शिशिर जी । आज के हमारे रहन सहन , स्वार्थ परक सोच प्रकृति के प्रति उदासीनता से पैदा हुई परेशानियों को अच्छी तरह रेखांकित किया आपने । बहुत खूब ।
राजकुमार जी आपकी सराहना के लिए बहुत बहुत आभार
आपने आज के हालतो का अच्छा विवरण दिया है
“शिशिर जी”
अस्मां रचना पसंद करने के लिए शुक्रिया
आदरणीय शिशिर जी ! , आपकी कविता ”आसमान भी रोया ” बहुत मार्मिक है . बेहद सटीक है .