अपने वास्ते नया इल्जाम मांगता रहूँगा
जब तक रहेगी नफरते मै प्यार बांटता रहूँगा।
खौफ क्या देंगी मुझे लहरों की अंगडाइयां
होके तूफ़ान समंदर में नाचता रहूँगा।
नजरों को नजर आया गर लड़खड़ाता आशियां कोई
मै आगे आके उसका हाथ थामता रहूँगा।
बच के जाएगें कहां नई उमर के बुलबुले
इंसानियत की डोर से मै सबको बांधता रहूँगा।
मेरे दिल के जख़्म ग़र तुमको ख़ुशी देने लगे हैं
दुआ में अपने वास्ते बस जख़्म मांगता रहूँगा।
………………देवेंद्र प्रताप वर्मा”विनीत”
बहुत खूबसूरत रचना है देवेन्द्र जी. काश ऐसी सुन्दर सोच सभी दिलों में जाग्रत हो.
नफरतों के सिलसिलों के ख़त्म होने के आसार
आप की इन पंक्तियों का तह -ए -दिल से आभार,,,,,,अपराजिता
धन्यवाद शिशिर जी। आभार सीमा जी।
समर्पण की भावना से ओतप्रोत सकारात्मक विचार प्रस्तुत करती अच्छी रचना !!
पता है क्या हूआँ जब उसने लिखी कविता मेरे लिए,
जल उठे मेरे आशा से भरे दिए
अब उसे भी चढ़ गया कविताओं का शोक
आने लगा उसके नगमो मे आलोक,
लगा उसे भी शब्दो का रोग,
पढ के हमारे दिल को..,
वो खूद को ना पाई रोक…
बैठी वो भी कागज और कलम लेकर,
चमक उठी आखेँ उसे इस तरह देखकर..,
वो जानती नही
की उसके शब्द मेरे लिए अनमोल है,
ये उसकी कलमो से कहे गएँ बोल है…!!!
-Alok upadhyay
मेरे दिल के जख़्म ग़र तुमको ख़ुशी देने लगे हैं
दुआ में अपने वास्ते बस जख़्म मांगता रहूँगा।,,,, बहुत खूब कहा हैं आपने सर