जरुरी तो नही …
मेरी कलम अक्सर बाते करती
मुझसे ये कहती, लिखू वही जो तू चाहे,
सर्वदा सत्य असत्य का भेद जाने
इतना गहरा बंधन सदैव जरुरी तो नही !!
ज्यादा उम्मीद मत रखना मुझसे
अक्सर मेरा दिमाग कहता मुझसे
मुझे भी तो कभी आजादी चाहिए
मै हर रोज़ सोचूँ तेरे लिए जरुरी तो नही !!
सहसा मेरे हाथ स्थिर हो गए
मै अवाक था संकोच वश पुछा
अब तुम्हे क्या हुआ भाई, जबाब था,
हर वक़्त चलू इशारे पर जरुरी तो नही !!
जबाब सुनकर लब सिल गये
कोई शब्द न फूटा, जाने क्या हुआ
शंका भाप कारण पुछा,अधर हिले
स्पंदित हो स्वर निकला बोलना जरुरी तो नही !!
प्रतिवचन सत्य से लबालब था
नयन सुर मिलाते हुये टिमटिमाये
आक्रोश में पलके झपकाकर कह गए
हर शै तेरे नजरिये से देंखू जरुरी तो नही !!
इतने से मैं अभी संभला भी न था
दिल से आह ! की आवाज निकली
कराती शाश्वत आत्मज्ञान का आभास
कभी तो मुझे मेरे हाल पर दे छोड़
तेरे इरादो को साकर करू जरुरी तो नही !!
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0——–:::—डी. के. निवातियाँ –::——-0
आत्म मंथन को रेखांकित करती सुन्दर रचना. फ्लो भी खूबसूरत बन पड़ा है. एक वैराग्य सा भी दिखाई देता है.
आपकी पारखी नजर को सलाम शिशिर जी !!
सर मुबारक हो ….आपके इस सुन्दर चित्रण के साथ ही हिन्दीसाहित्य मे आपकी तीन सौ रचनाएँ पूरी हुईं …..आपका सफर काफी सराहनीस…और प्रेरणादाई रहा है….
प्रिय अनुज,
हार्दिक आभार, आप के प्यार और उत्साहवर्धन ने मुझे सर्वदा प्रेरित किया है ! आशा करता हूँ आगे भी अपनी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया के साथ अमूल्य शब्दों से उत्साहहित करते रहेंगे !!
धन्यवाद !!
निवातियां जी बहुत ही खूबसूरत रचना ।शिशिर जी और अनुज की प्रतिक्रिया से पूर्णतया सहमत हूं । तीन सौ कवितायों का contribution
एक बडा़ contribution है ।Congratulations .
धन्यवाद बिमला जी
आप लोगो के उत्साह भर देने वाले प्रशंशनीय शब्दों से एक नई ऊर्जा एवं प्रेरणा मिलती है.
आप सभी का सहयोग बहुत ही सराहनीय है इसके लिए ह्रदय से आभारी हूँ !!
अंतर्विरोध से लबालब एक खूबसूरत रचना जी । तिहरा शतक जड़ने पर बहुत बहुत बधाई ।
धन्यवाद राज जी,
यह सब आप लोगो के प्यार और उत्साहवर्द्धन से मिली प्रेरणा से ही संभव हो सका है, इसके लिए आव सभी कविगणों का हार्दिक आभार !!