असफलताओं का क्रम,
साहस को अधमरा कर चुका है।
निराशा की बेड़ियाँ कदमों मे हैं,
धैर्य का जुगनू लौ विहीन होता,
अँधेरों के सम्मुख घुटने टेक रहा है।
और उम्मीदों का सूर्य, विश्वास के
क्षितिज पर अस्त होने को है।
जो कुछ भी शेष बचा है,
वह अवशेष यक्ष प्रश्न सा है।
क्या अथक परिश्रम और उससे उपजे,
स्वेद कणों की पातों में इसी की चाह थी!
या फिर जहां चाह वहां राह महज़ एक अफवाह थी।
यदि नहीं! तो निज सामर्थ्य को समझने मे भूल क्यों
सफलता की राह मे विफलता के शूल क्यों?
चित्त इन सीधे प्रश्नो के उत्तर ढूँढता,
शून्य की गहराइयों मे उतर गया।
और अंधकार का साम्राज्य,
सूखे पत्तों की भांति बिखर गया।
सफलता की कामना ही,
विफलता के भाव को जन्म देती है।
स्वतः उत्पन्न हो जाता है भय,
और भय की विषाक्त वायु निर्भय
आत्म विश्वास के प्राण हर लेती है।
तो क्या सफलता इसी भांति
विफलता का आहार बनेगी?
सुखों की चाह दुख की डगर चुनेगी,
या कहीं कोई पवित्र प्रतिबंध है
विफलताओं और दुखों का स्थायी अंत है।
हाँ ! देखिये क्या अजीब दृश्य है,
जिसकी कामना है वह दूर है,
जिसकी चाह नहीं भरपूर है
यही मूलमंत्र है
सफलता और सुख की
आसक्ति का परित्याग
विफलता और दुख के
भाव और भय का अंत है
किन्तु कैसे ! अन्तर्मन यह रहस्य
समझ नहीं पाता है
गौर से सुनो! स्वयं मे निहित
आनंद की बांसुरी की मीठी तान
जिस पर ‘संतोष’ झूमता है, गाता है।
…………………….देवेंद्र प्रताप वर्मा ”विनीत”
बहुत ही सुन्दर कविता है आपकी देवेन्द्र जी। संतोष की भावना आज के युग में सचमुच ही बहुत दुर्लभ हो गई है।
सही कहा आपने इसलिए हर आदमी परेशान उलझा दिखाई पड़ता है।
देवेन्द्र आपने बहुत ही सुन्दर रचना लिखी है. शब्दों का बहाव बहुत प्रभावशाली है. वास्तव में इंसान को यह समझने में बहुत समय लगता है कि, “विधि का विधान जान हानि लाभ साहिए, जाय विधि राखे राम ताहि विधि रहिए”. ही संतोष पाने का परम सूत्र है जिसे गीता में भी भगवान कृष्ण ने अर्जुन को भी समझाया है. लेकिन किसी चीज़ को पढ़ने में और आत्मसात कर जीवन में उतारने में बहुत अंतर है
आत्मज्ञान का साक्षात दर्शन कराती सुन्दर रचना !!