जहाँ में ईश्क़ का हासिल नहीं है ,
कोई भी ईश्क़ के क़ाबिल नहीं है॥
वफ़ाएँ मिट चुकी हैं इस जहाँ से ,
मुहब्बत की कोई मंज़िल नहीं है॥
दिलों को तोड़के बेपरवाह चलना,
हसीनों की सदा फितरत यही है॥
हमें अंजाम की परवाह कब थी,
तमन्ना डूबने की हर घड़ी है॥
किसे दिखलाऊँ ज़ख़्मे-दिल मैं जाकर,
कि ऐसे ज़ख़्म का मरहम नहीं है॥
जमाना कह रहा हमको दिवाना ,
मगर वो खुद कहीं पागल नहीं है॥
कभी जो जान से बढ़कर था “ईश्क़ी”,
बताऊँ क्या मेरा क़ातिल वही है।।
(C)परवेज ईश्की
एक अच्छी रचना के लिए धन्यवाद।