ख्वाहिश है , कि हर बच्चा हँसता , खिलखिलाता रहे ,
कि उसकी हँसी, मतलबहीन प्रतियोगिताएँ न छीन लें।
ख्वाहिश है, कि छोटा होता बचपन इतना न हो जाए छोटा ,
कि कंप्यूटर की वर्चुअल दुनिया,उससे उसका पूरा का पूरा बचपन न छीन लें।
ख्वाहिश है कि हर फूल खिलता ,महकता रहे ,
कि शहर का प्रदुषण,उससे उसके रंग चमक और खुशबू न छीन ले।
ख्वाहिश है कि शहर के कंक्रीट जंगल में, कुछ हिस्सा मिट्टी का बच जाए ,
कि हमारा यह शहर हमसे, मिटटी की सोंधी खुशबू ना छीन लें।
ख्वाहिश है कि हर रिश्ता, सिर्फ फेसबुक तक न हो जाए सीमित।
कि समय का अभाव हमसे, हमारा हर रिश्ता न छीन ले।
ख्वाहिश है कि युवां जिंदगी की अंधी दौड़ में, इतना न हो जाए मशगूल,
कि काम का बोझ उससे, जीवन की सारी की सारी खुशियां न छीन ले।
यूँ तो मेरी ऐसी छोटी मोटी ख्वाहिशें हैं बहुत ,
मगर डरती हूँ कि आने वाला कल, मेरी सारी की सारी ख्वाहिशें न छीन ले।
बहुत अच्छी कविता है मंजुषा जी !!
वर्तमान जीवन की सच्चाई बयान करती है ये कविता !!!!…
प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आस्मा जी
मञ्जूषा अंत में तो आपने गज़ब बात कह दी. आनंद आ गया पढ़कर.हमने जीवन को क्या से क्या बना दिया
बहुत बहुत धन्यवाद शिशिर जी