दिल को कैसे समझाऊँ,
ये मेरी एक नहीं सुनता।।
जज़्बातों का समुन्दर है मेरी आँखें,
मेरी नजरों को कोई और नहीं ज़चता।
पलकों पर तस्वीर सजा रक्खी है,
आंशुओं की अब कोई नहीं सुनता।
दिल को कैसे समझाऊँ,
ये मेरी एक नहीं सुनता।।
लाख खताओं की मैं ज़िक्र करू अपनी,
सज़ा-ए मौत के सिवा कुछ नहीं मिलता।
तेरे हुस्न की तारीफ़ किये है ज़माना सारा,
अब तो ख़ुदा भी तेरे हुस्न की फ़िक्र करता।
दिल को कैसे समझाऊँ,
ये मेरी एक नहीं सुनता।।
क़ातिल है तेरी नज़र,
ये कोई और क्यू नहीं समझता।
हर सख्श सिर्फ देखे है हैरत से मुझे,
खता तेरी भी होगी ये ज़माना क्यू नहीं मानता।
दिल को कैसे समझाऊँ,
ये मेरी एक नहीं सुनता।।
Very beautiful gazal….
बहुत अच्छे …….डा. .मोबिन !!
शुक्रिया डी. के. जी।।