चलो बुहारें अपने मन को
…आनन्द विश्वास
चलो, बुहारें अपने मन को,
और सँवारें निज जीवन को।
चलो स्वच्छता को अपना लें,
मन को निर्मल स्वच्छ बना लें।
देखो, कितना गन्दा मन है,
कितना कचरा और घुटन है।
मन कचरे से अटा पड़ा है,
बदबू वाला और सड़ा है।
घृणा द्वेष अम्बार यहाँ है,
कचरा फैला यहाँ वहाँ है।
मन की सारी गलियाँ देखो,
गंध मारती नलियाँ देखो।
घायल मन की आहें देखो,
कुछ बनने की चाहें देखो।
राग द्वेष के बीहड़ जंगल,
जातिवाद के अनगिन दंगल।
फन फैलाए काले विषधर,
सृष्टि निगल जाने को तत्पर।
मेरे मन में, तेरे मन में,
सारे जग के हर इक मन में।
शब्द-वाण से आहत मन में,
कहीं बिलखते बेवश मन में।
ढाई आखर को भरना है,
काम कठिन,फिर भी करना है।
…आनन्द विश्वास
http://anandvishvas.blogspot.in/2015/11/blog-post_30.html
आनंद जी अत्यंत खूबसूरत रचना.
बहुत-बहुत धन्यवाद, शिशिर जी।
…आनन्द विश्वास
बहुत अच्छा लिखा है आपने आनन्द विश्वास जी !!!!….
पढ के आनन्द आगया ……अच्छी कविता…….
मन का ही तो जग में सारा खेल है, मन साफ़ तो सब कुछ अच्छा होता है, मन की गंदगी हर एक विषय विकार की जननी है !!
अच्छी रचना आनंद जी !!