टूटा सदा ये दिल जहाँ जुड़े थे मेरे जज़्बात
क्या होता इस सफर में आते ना जो तुम साथ
लोगों ने जी भर लूटा मन का मेरे विश्वास
धोखा था इतना सच्चा ना हो सका एहसास
उसका करम था मिल गए तुम इस सफर के बीच
तन्हाई की गहराई तब हमको सकी ना खींच
फिर खिल उठे हैं दिल के इस गुलशन में ढेरों फूल
तुमसे अरज है भूल कर भी ना हमको जाना भूल
अब गिरे तो फिर ना संभल पाएंगे कभी
है कोई भी शिकवा अगर वो कह दो तुम अभी
इतना तो तय है पीछे हमारे दुनिया करेगी याद
हमने सदा लुट कर किये हैं दूजों के घर आबाद.
शिशिर “मधुकर”
सही कहा शिशिर जी, स्वंय जलकर रौशनी देने का नाम ही चिराग कहलाता है !! बहुत खूब !!
आपकी तारीफ के लिए बहुत बहुत शुक्रिया निवातिया जी.
बहुत ही उम्दा …….!
अस्मा आपकी प्रशंसा के लिए अनेको आभार.
बहुत ही सच्ची और दिल को छू लेने वाली बात कही है आपने अपनी कविता के द्वारा शिशिर जी ,
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर।
गिरिजा जी आपका बहुत बहुत आभार