याद आयीं जो बीती बातें
अपनी भी खबर न रही
ऐसे गुज़र गयी ज़िन्दगी
बहारों की भी खबर न रही
मुमकिन नहीं पलों का लौट के आना
फूल और काँटों का संग मुस्कराना
अपनों का गैरों का भूल सा जाना
मीठी बातों का हर पल दोहराना
पर नियति केआगे झुक जाना
शायद इसी का नाम ज़िंदगी है
आती हैं बहारें चली जाती हैं
इनके मौसम होते हैं चार
बसंत तो ले आती है बहार
पतझड़ उड्डा ले जाती है करार
सर्दियों में गर्मी पे आता है प्यार
परेशान करती हैं गरम हवाएँ कभी बेशुमार
नज़ारे हरपल बदलते रहते हैं
चलती रहती है ज़िन्दगी
चेहरे बदलते रहते हैं
सफर अलग है हर किसी का
रंगों में हम ही उलझे रहते हैं
बीत जाना है जीवन जब
और चले जाना है
कर्मों की गठरी ने ही
अंत साथ निभाना है
रह जायेंगे सारे नज़ारे यहीं
आये थे जहां से हम
वापिस वहीँ चले जाना है
मौसम तो बदल जाते हैं
चलती रहती है ज़िन्दगी
चेहरे बदल जाते हैं
मौसम तो हैं पल चार
कहाँ हरदम साथ निभाते हैं
जीवन की सच्चाई समेटे सत्यपरक रचना !!
मगर अफ़सोस किरण जी इंसानी फितरत ही ऐसी है की सब जानते हुए भी अनदेखा करते है !!
धन्यवाद निवतियां जी , शायद. यह ही ज़िन्दगी है