हिम से निकली एक आज़ाद परी ,
यु तो नटखट पर स्वाभाव में खरी ,
रास्ता अनजान न आँखों में मंज़िल,
बह निकली वह छोटी नदी ||
हर पत्थर हर वृक्ष को पार कर ,
अपने रास्ते के हर दृश्य को सवाँर कर ,
जोश खूब उसे अपनी जवानी का ,
उसके बहाव में कोई न तैरता था डर कर ||
वक़्त बड़ा वह आगे चली ,
न वो जोश न वेग बची ,
लोगो ने उठाया लाचारी का फायदा ,
नदी को भी बुढ़ापे की फिक्र लगी ||
समझ में आया की गुरूर एक बेतुका अफ़साना है ,
ज़िन्दगी तो एक खत्म होता पैमाना है ,
जितना निस्वार्थ दे सको वही साथ जाना है ,
एक दिन तो उसे भी सागर में मिल जाना है ||
प्राकृतिक सौंदर्य के माध्यम से अहंकार को आइना दिखाती एक अर्थपूर्ण रचना ….. बहुत अच्छे !!