नीलगगन की छाओं में शाम ढल रही है
तारो का आँचल ओढ़े रात सज रही है !!
हुआ जाता आसमा का धरती से मिलन
शरमा के संध्या सागर में मिल रही है !!
रात के अँधेरे अब किनारे ढूंढने लगे है
मध्यम मध्यम दीपो को लौ जल रही है !!
आलम जाने कैसा होगा आज की रात का
हर तरफ उजाले की चहल कदमी बढ़ रही है !!
जैसे शर्म से नजरे चुराकर सूरज चला
अब चाँद की चांदनी जमी पे ढल रही है !!
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@___डी. के. निवातियाँ [email protected]
प्राकृतिक छटा को पेश करती सुन्दर रचना …
शुक्रिया !!
निवातिया जी सुन्दर प्रेम भावनाओ से भरी रचना
धन्यवाद शिशिर जी !! कई दिन बाद ऑनलाइन नजर आये हो !!
ङी के जी रचना अच्छी है!
शुक्रिया आसिमा जी !
very nice and beautiful too.
Thanks Girija Ji.
बहुत अच्छी, भावपूर्ण कविता ।
धन्यवाद बिमला जी !!
D ,K,ji bahut hi sunder kavita hai aapki. vaisey bhi main jahan kahin bhi prakati ki talash mein jaati hun, vaha mai anya drashyon key sath dubatey huay suraj ko avashya hi dekhati hun. main late riser hoon isliyey ugtey
suraj ko dekh hi nahi sakti.
हार्दिक आभार मंजूसा जी !