ये किसने आबो हवा खराब की मेरे चमन की
खिलखिलाते गुलिस्ता अब मुरझाने लगे है !!
कल तक खिजाओ में आया करती थी बहारे
गुलशन में नई कलियाँ अब कुम्हलाने लगे है !!
क्या करे उम्मीद कोई किसी से हिफाज़त की
यंहा तो माली ही अब गुलशन उजाड़ने लगे है !!
पंछियो की कोलाहल, कोयल की कूक नही होती
कैसे चहकते जंगल भी अब बियावान रहने लगे है !!
हम तो वैसे ही खुशमिज़ाज है “धर्म” और तुम भी
फिर क्यों शहर में नफरत के शोले भड़कने लगे है !!
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——-डी. के. निवातियाँ ——-
आज कल के ताजा हालात कुछ ऐसे ही हैं । एक सच्ची रचना ।
शुक्रिया गुप्ता जी !!
एक शब्द लिखूंगा: सत्य
शुक्रिया कमल जोशी !!
मन से निकलकर मन को छू लेने वाली प्रभावशाली गज़ल।
….आनन्द विश्वास
शुक्रिया आनन्द विश्वास जी !!