मैंने तृप्ति करी भूख की ,
ओढ़ने के लिए लिबाज़ बनाया ,
जब सब समझ ना सका जीवन में ,
मैने ही अंधविश्वास बनाया ||
मैंने ही महसूस किया दर्द को,
मैंने ही तो प्यार बनाया ,
जब सब हासिल न कर सका खुदसे ,
मैंने ही व्यापार बनाया ||
मैंने रचना की शिष्ट समाज की ,
खुदको मकबूल बनाया ,
जब सबपे राज़ न कर सका ,
मैंने ही कानून बनाया ||
मैंने ही बाटा धर्म में लोगो को ,
सबने अपना अलग संवाद बनाया ,
जब खत्म हुई शहिषुणता मेरी ,
मैंने ही आतंकवाद बनाया ||
मैंने ही नापे पैर धरती पे ,
मैंने ही सबको आसमान बताया ,
जब डर खत्म हुआ एक दुसरे का ,
मैंने ही भगवान बनाया ||
very nice poem……….
dhanyawaad 🙂 girija
रचना बहुत सुन्दर है ,बधाई
dhanyawad meenaji 🙂
स्वार्थ में लिप्त मानव मानसिकता का सटीक स्पष्टीकरण……..बहुत खूबसूरत !!
dhanyawad niwatiyaji 🙂