! “काश होता मैं !
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काश !
होता हर पल मेरा, बारिश की एक एक बूँद
टपकता रहता बिना किसी चाह के, खोता रहता धरती की गोद में !
काश !
होता मैं उस गुलाब की तरह, किसी बगिया में फूलों के बीच
बिखेरता रहता अलग रंग अपना और खोता रहता सूरज की रोशनी में !
काश !
होता चीड का दिल मेरा, काश्मीर की वर्फीली वादियों में
खड़ा, मजबूत, अडिग, अटल, फिर खो जाता वर्फ की सुनहरी गोद में !
काश !
होता मैं आकाश में, टिमटिमाते हुए इक तारे की तरह,
बिखेरता रहता प्यार का प्रकाश सदा, प्यार का प्रकाश सदा,
और खोया रहता बस यूहीं प्यार और बस प्यार में ! ! ! !
काश !
रखा होता यदि, मैंने आस्था और विश्वाष ईश्वर में
उसने अवश्य की होती मदद मेरी ! !
होता मैं इंसान एक अच्छा, करता रहता सेवा निरंतर
उन जरूरतमंदों की, जिन्हें नहीं नसीब दो जून की रोटी भी
चलो, विलम्ब से ही सही,करते हैं शुरुआत
आज और अभी से, देर किस बात की……………?
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ललित निरंजन
ये रचना आपकी बहुत ही अच्छी है ! आपके शब्द अच्छे है,
ललित जी