धूप सुनहरी चलती रहती,
वक्त का दामन थामे |
पर्वत नदियाँ सब सहमे से,
कहते है कब सावन आवे ||
पतझड़ छाया है मन में,
मुस्कान भी धूमिल होती जाती |
जर्जर लम्हे होकर घायल,
कहते है कब सावन आवे ||
एक बूँद पड़ी जब मिटटी पर,
उड़ी महक इस दिल तक |
पल में जीवन झूम उडा,
रहा न ख़ामोशी का पहरा ||
अब रिमझिम वारिश,
धूमिल पत्तो को नहला कर |
पर्वत को सहला कर,
चली झूमती इस दिल को बहला कर ||
रचयता सोनिका मिश्रा
प्रेम प्यास में आशान्वित ह्रदय की सुन्दर अनुभूति !! अतिसुन्दर सोनिका !!
प्रेमपिपासा को प्रकृति के माध्यम से व्यक्त करने की अच्छी कोशिश ..अच्छी रचना सोनिका जी ..