बचपन की धूमिल स्मृतियों के
बहुआयामी गलियारों में
आड़ी तिरछी रेखाओं के बीच
एक ठहरी उम्र के पड़ाव में
गूंजते अनकहे संवाद
खुली खिड़कियों से झांकते
सारांशों के लहराते पत्ते, कहते
कागज के बनाये जहाजों से
औरों से इतना कैसे जुड़ा
कि तुझे छू न सका मैं
तू वह कौन सी हवा है
अपनी सांसों में ले न सका मैं,
आसमान से बातें करता
क्षितिज का बेगाना मुसाफिर
अखबारों के चित्रों को काटकर
दीवारों पर सजता मौसम
सपने सच होने की कहानी कहता
परछाईयों से परिचित कराता
अनभिज्ञ जीवन चिन्तन
अंधकारों की स्याह सोखती
भावों की असफलताऐं
आशाओं के अधखुले आवरण में
रात की वर्जनाओं को तोड़ते
मुसाफिर का अभिमान कहता
सूरज का उल्लास फिर लौट आयेगा।
………………… कमल जोशी
अभिमान से पार पाना कितना कठिन होता है किसी कलाप्रेमी के लिए भी आपकी कविता बताती है