हिन्दी तुझे
क्या सोचती है
मैं अकेला निहत्था
इस संसार से लड़कर
तुझे डुबते हुए
अथाह सागर से
हाथ पकड़ बचा लूंगा
कहां है मुझमें वो दम
और कहां में साधूं
वो कपाल भाति
रोक सकूं सांसे जिससे
समुद्र के लवणीय पानी में
फिर तु भी कहां
तैर रही है।
इस गहरे सागर की
लम्बी चौड़ी गोद में
चैन की नींद
सो रही है।
इतनी गहराई तक
मैं स्वयं पहंुच जाऊं
ये मेरा औचित्य नही है।
माना किसी तरह से मैं
जो तेरे पास
पहंुच भी जाऊं
फिर उल्ट पैर मैं
आ ना पाऊं
सांसे हो जायेंगी
समुद्र का उपहार मेरी
विलीन हो जाऊंगा
समुद्र में मैं
मिट जायेगी मेरी हस्ती
रहेगी पिछे सिर्फ मेरी
चंद बचपन की यादें
ओर गूंजती किलकारियां।
-ः0ः-
सर माफ़ कीजियेगा…पर मैं इस कविता का आशय नहीं समझ पायी…कृपया मुझ नासमझ को समझायें…
ashitaji hindi ko bachane ke liye yaha kahna chahta hu
‘नवल’ रचना का भाव अच्छा है, मगर जो कहना चाहते हो उसको समझाने में अक्षम ! आपके पास शब्द भण्डार अच्छा , कृपया लेखन शैली में सावधानी बरते !!