जागो कुम्भकारों जागो !
तुमने ही की इसकी रचना
तुमने ही किया इसका विस्तार
जागो हे प्रजापतियों
जागो हे कुम्भकार।
अवषेष यदि कोई न मिलता
पुराने मृदभांडों का
सच ! पता न चलता
प्राचीन संस्कृति का
क्यों फिर छोड़ रहे हो संस्कृति ?
करों चाक पर इसका विस्तार,
जागो हे प्रजापतियों
जागो हे कुम्भकार।
ब्रह्मा सृष्टि को रचता है
रूप तुम्हारा वैसा अनोखा है
तुमसे सीख सभी लेते हैं
जहां मौका कोई आता हैं।
जीवन के हर पहलू पर
दी जाती है तुम्हारी मिसाल,
जागो हे प्रजापतियों
जागो हे कुम्भकार।
-ः0ः-
नवल जी , बहुत अच्छी कविता । वर्तमान पीढी़ के लिए एक चुनौती -अगली पीढी़ के उत्थान के लिए काम करने की ।