दांस्ता ऐ तिरंगा
दस्तक दी दरवाजे पर एक शाम मेरे तिरंगे ने
मुझ मनमौजी को आवाज दी उस तिरंगे ने
निकलते आँसुओ से अपनी पहचान दी तिरंगे ने
सुनाई दांस्ता अपनी बेबस लाचार तिरंगे ने
आजादी की शान का , देश के सम्मान का
आन का बान का, वीरो के प्राण का मैं तिरंगा हूँ
जो जडे हैं बदनाम दंगे की, वो बात करते है मुझ तिरंगे की
दोरंगे सफेदफोशो ने, बिगाड़ी है शान मुझ तिरंगे की
शान्ति से जुड़ा हुआ हूँ केसरिया हरे रंगो से
टूट सा गया हूँ मैं इन रंगो से उपजे दंगो से
दरिन्दगो से कुचली मासुमान का , दंगो से बची जान का
फांसी खाते किसान का , इस देश की झूठी शान का
मैं तिरंगा हूँ ।
मैं मनमौजी पूछता हूँ …..
मंदिर की गीता ज्ञान से ,मज्जिद की कुरआन अजान से
देश के ईसाइयान से, गुरु ग्रन्थ साहिबान से
क्या धर्मो को मतलब हैं रंगो से
क्या हम एक नही हो सकते तिरंगे से
क्या हम एक नही हो सकते तिरंगे से
अंशुल पोरवाल
मनमौजी
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जैसा की ग्रुप मे घनश्याम जी ने कहा है की …..मात्राओं का सही अनुपात ही अच्छी कविता की पहचान है ….मै सहमत हूं..!
Nice line…