कहानी आकर उसी फलसफे
पर रूक गई
जहाँ थककर कलम अपनी
जबरन मै उठाता गया
हसरत थी की सो जाऊं रखकर
किसी कंधे पर सर
यूँ रात रात भर जमाना
बेरहम जगाता रहा
चला जो चाल ज़माने को
रिझाने के लिए
हर मोड़ पर जालिम ये
नई नई सिखाता गया
दर्द भी उभरा है कभी
कभी मेरी आँखों से
अपनी ही नादानियों की
कीमत मै चुकाता गया
जोड़ ही ना पाया खुद को
बड़ी कष्ट देती है खुदी
जाने ये जमाना मुझे
क्या से क्या बनाता गया
Rakesh ji aapki rachna bahut hi achhi lagi
सुंदर अभिव्यक्ति !!