“मै चंचल हु, मै कोमल हु
लोग मुझे समझ पाये ना
धडकू मै तुम्हारे लिए हर पल
लोग समझ ये पाये ना ,
खुद में समेटे भावो का संसार
संवेदनशील बनाता हु
ख़ुशी-ख़ुशी सब तिरस्कारों को
सहज ही मै अपनाता हु ,
खुशियों का संसार लिए
प्रिय मिलन को मै तरसू
और वियोग में हर पल
फिर उसके मै तडपू,
समझू रिश्तों की प्रगाढ़ता को
प्यार भरु सबके जीवन में
बदनाम मुझे लोग करते है
भरके नफरत खुद के मन में .||”
अच्छी परिभाषा दी है आपने ओमेन्द्र
मूक ह्रदय की व्यथा को शब्दों में प्रवाहित करने की कामयाब होती कोशिश !! बहुत अच्छे !!
BEHTARIN KAVITA HAI JANAB…………..
उत्साहवर्धन एवं सराहना के लिए आप सभी मित्रों का बहुत -बहुत धन्यवाद ………