कवितांए ओर दहेज
मैं भी कितना मूर्ख
आपको पैदा किया
पाला-पोषा बड़ा किया
पर अब रोना है आता।
जब आपको अपने
अपने कांधे से बड़ा हूं पाता।
आपकी जवानी मुझे
अन्दर से निचोड़ है देती
सारी ममता हृदय में जो थी
आंखों के रास्ते बाहर है आती।
पर मैं कर भी क्या सकता हूं
जब तक कोई वर ना लायक मिले
ऐसे किसे मैं सौंप दूं
मन है मेरा दुविधा में
आप तो शर्माषर्मी कहती नही
पर मैं भी क्या अंधा हूं।
जो इतना भी ना देख सकूं।
कि मेरी इतनी सारी जवां बेटियां
बैठी हैं वर्षों से घर में
इनकी जवानी धीरे-धीरे
लुप्त सी होती जा रही है।
चेहरे की लालिमा भी अब तो
फिकी जैसे पड़ने लगी है।
पर मुझे तुम माफ करो
मैं लाचार हूं, कुछ करूं कैसे
मैं बेकार हूं, कुछ कर नही सकता
यही तो दुराचार है।
-ः0ः-
एक गरीब व्यक्ति अपनी बेटियों के भविष्य के लिए किन झंझावातों का सामना करता है उसका बड़ा ही भावुक चित्रण आपने किया है. नवल लेकिन अंत में दुराचार शब्द ठीक नहीं लग रहा है. इसकी जगह विवशता या उसका कोई उपयुक्त पर्यायवाची जैसे मज़बूरी इत्यादि को उपयोग करने की सोचो.
एक और सलाह देना चाहूँगा. जो गलती मैंने भी की थी उसे मत दोहराओ. अपनी एक दो रचनाओ से ज्यादा एकदम नहीं प्रकाशित करो क्योंकि तब लोग उन्हें नहीं पढ़ते.
एक साधारण व्यक्ति को पुत्री के पिता के रूप में समाज में किन परिस्थितयो का सामना करना पड़ता है उसकी अच्छी झलक पेश की है !