बुढ़ापा
आंखें द्रवित, मन निर्झर
देह बनी अस्थि पिंजर।
रंग हुआ शस्य-श्यामल
काल ने डस लिया हर अंग।
चांदी बना हर स्याह बाल
सबकुछ बदल जाता है मानव
क्या रहता है जीवन भर।
आंखें द्रवित, मन निर्झर
देह बनी अस्थि पिंजर।
अधरों की लटकी है खाल
है जरूरत सहारे की
टेढी-मेढ़ी हुई है चाल
कमर लगी है करने चर्मर
आंखें द्रवित, मन निर्झर
देह बनी अस्थि पिंजर।
माना कभी भी तुने नही
उस प्रभू का नाम लिया
आज अपना प्रायष्चित कर
भुला क्यों तु उसको प्राणी
जो तेरा रखवाला हैं ईष्वर।
आंखें द्रवित, मन निर्झर
देह बनी अस्थि पिंजर।
-ः0ः-
very nicely described.
bahut sundar bhav
वृद्धावस्था का सजीव चित्रण अच्छे शब्दों से साथ…… बहुत अच्छे !!