एक गरीब चाह
जी रहा था निर्जन
मन के किसी कोने में
बंजर मन का राजा था वह तो
फल-फूल रहा था अकेले ही
क्या पता था पतझड़ भी शीघ्र आता होगा
नवीन जीवन से प्रेरित
जीवन संग्राम में जूझ गई
वह निर्बल लघु चाह फिर से
आशा का पताका लहरा उठा, मगर
विद्रोह हुआ विजय के विरुद्ध
कुचली गई उस चाह की जिंदगी
nice. real sometimes.
क्या खूब लिखा उत्तम जी, चाह को भी गरीबी के बंधन में बाँध दिया !!
जीवन की सच्चाईओं का सामना करते हुए अक्सर बड़ी अज़ीज़ छोटी छोटी इच्छाओं का दमन हो जाता है.बहुत खूबसूरती से सच उकेरा