हे भगवान!
इनसान
आज ढूँढते हैं अपने प्राण
हे भगवान!
सुख चैन ढूँढते
उस खुशहाल गांव के
ग्रामीणों की तरह
जो आने के एक दुष्ट जादूगर से
हो गए हे बेचैन, परेशान
इनसान
आज ढूँढते हैं अपने प्राण
हे भगवान!
उस राजकुमार की तरह
जिसने बंधाई ग्रामीणों की उम्मीद
जो करेगा दुष्टता का अंत
देगा पुनः चैन की नींद
लौटेगा उनका सम्मान
इनसान
आज ढूँढते हैं अपने प्राण
हे भगवान!
उन ग्रामीणों और राजकुमार की तरह
जो हैं हैरान
जादूगर तो चित्त है चारों खाने
फिर भी हँसता है, कैसै जाने?
“मरणासन्न हूँ! मार नहीं पाओगे
दूर देश बसे तोते में रखे हैं मेरे प्राण
तुम कैसे पहुँच जाओगे”
हे भगवान!
कहानी ने याद दिलाया
प्राणों को दाना बना
अपने परिंदों को खिलाया
परिंदों की ऊँची उड़ान
हे भगवान!
इनसान
आज ढूँढते हैं अपने प्राण
हे भगवान!
विदाई कभी भी आसान नहीे होती। फिर भी भगवान
परिंदों के परों में जान दे
उन्हें ऊँची उड़ान दे।
भावनात्मक तथ्यों को छूटी यथार्थपूर्ण भावुक रचना !! बेहतरीन गिरिजा जी !!
मेरी कविता आप तक पहुँच पाई… आभार
कवीता के बोल सुन्दर है
Thanks Ekta for liking
गरिमा जी, सच कहुँ तो मैं कविता के अर्थ को लेकर कन्फ्यूज्ड हूँ. मेरी समझ से आपने दिखावे और बाजार की आज की संस्कृति द्वारा भारतीय मूल्यों एवं सद्भावना के लुप्त होने की ऒर इंगित किया है .जिसे आपने प्राण कहा है. यदि शब्दों में कोई अन्य रहस्य छुपा है तो आपके जवाब से मुझे उसे समझने में सशयता मिलेगी.
हाँ मुझे इसी comment का इंतजार था क्योंकि clarity को लेकर थोड़ा confusion मुझे भी रह गया था। दरअसल मैंने कई comics इस तरह की पढ़ीं हैं जिसमें जादूगर अपनी जान किसी एक या अधिक परिंदोे में डाल कर खुद को अमर करने की कोशिश करता था। उस समय मुझे यह बात बहुत असमंजित करती थी कि कैसे कोई अपनी जान इस तरह से कहीं और रख सकता है। लेकिन जब आज हमारे प्रतिभाशालि बच्चे दूर देश जाकर बसते हैं तो लगता है कि सच में उस जादूगर के प्राणों की भांति हमारे प्राण भी हमसे दूर ही बसते हैं। कविता को कहानी के माध्यम से बढ़ाते हुए मैंने बस यहीं तक पहुँचने की कोशिश करी है। भविष्य में इस कविता को और clear कर पुनः प्रस्तुत करने की कोशिश करूँगी।