सुरमई सांझ,सोने सी थाली सा ढलता सूरज
तरह-तरह की आकृतियों से उड़ते पंछी
घरों से उठता धुँआ,
चूल्हों पे सिकती रोटियों की महक
गलियों में खेलते बच्चे
माँ की डाँट,खाने की मीठी मनुहार
जाने कहाँ खो गए
एक दूसरे से आगे जाने की होड़
जिन्दगी की भागमभाग,
सब कुछ पा लेने की स्पर्धा मे
हम कुछ से कुछ और हो गए
अठखेलियाँ करता बचपन,
बादलों में तस्वीरें बनाने की कल्पना
जाने कहाँ रह गई
पछुआ पवनों की सिहरन,
बरखा की बूँदों की छम-छम सी हँसी
ना जाने कौन दिशा में बह गई
पूर्णिमा की सांझ,
मेरे साथ चलता चाँद
चाँद में चरखा कातती बुढ़िया,
नीम का पेड़
यादों में डूबा मन
रोशनी के उजालों मे,
भागती भीड़ में यातायात के जाम में
ना जाने कहाँ खो गया
शरद पूर्णिमा का चाँद,
चाँदनी में सुई पिरोने का सपना
इस शहर में आकर
कहीं मुँह ढक कर सो गया.
“मीना भारद्वाज”
वाह मीना जी आपने जीवन के बारे में अपनी भावनाओ को कितने खूबसूरत शब्द दिए है. लेकिन आजकल तो इन भावना रहित लोगो की ही भरमार है जिनकी असीमित इच्छाओं का कोई अंत नहीं
सराहना के लिए आभार मधुकर जी!
ग्रामीण और शहरी परिवेश की भिन्नता दर्शाती हुई बचपन से जोड़ती अतीत की यादे का सटीक वर्णन करती सत्यपरक रचना !! बहुत उम्दा मीना जी !!
धन्यवाद निवातियाँ जी!