मैं तेरे बाद नहीं तू मुझसे पहले है
ऐे ज़िन्दगी
मैं तेरे साथ सही पर तू मुझसे आबाद है
ऐे ज़िन्दगी
मेरा नाम सुनकर
लोग थर-थर कांपते
तेरा आहट पाते ही
ख़ुशी में झूम जाते
हम एक ही सिक्के के दो चेहरे हैं
फिर क्यों है तू आज़ाद और मुझपर पहरे हैं
तू शुरुआत तो मैं अंत हूँ
तू अर्थात तो मैं आज भी एक प्रश्न हूँ
क्यों बस तुझे है मिली बांटने को हंसी
मैं नहीं चाहता छीनना किसी की ख़ुशी
कैसे समझाऊं, मैं तो पूर्णविराम हूँ
कैसे समझाऊं, मैं जीवन का आखरी विश्राम हूँ
सफर है ये ज़िन्दगी
तो मंज़िल हूँ मैं
तम्मन्ना है ये ज़िन्दगी
तो हासिल हूँ मैं
जीवन की डोर थाम
पर मुझसे फेर ना मुँह
तेरे शरीर नष्ट होगा
पर अमर रहेगी तेरी रूह
जो जियेगा तू औरो में
तो मैं तुझे ज़िंदा रखूंगा
जो मरेगा तू बस अपना बनकर
तो मैं तुझे मुर्दा कहूँगा
मौत ने कुछ देर कर दी
तो ज़िंदा हो तुम
उधार की थी ये ज़िन्दगी
क़र्ज़ थी ये ज़िन्दगी
इक मौत ही तो है
जिसे कमाए हो तुम
यूँ ना मानो की ज़िन्दगी जीते- जीते
इक दिन अचानक मौत आ जाती है
कुछ यूँ समझो की मौत के ठीक पहले
के कुछ पल को ही ज़िन्दगी कहते हैं…
उम्दा अभिव्यक्ति
बहुत अच्छी रचना और अपना अलग अंदाज़. इसी विषय पर मेरी एक रचना “ज़िंदगी के दौर” भी पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया भेजें
जिंदगी और मौत को बेहतर एवं प्रभाशाली ढंग से परिभाषित किया है !!
“मेरे विचार में जिंदगी एक परियोजना है और मौत उसका प्रतिफल”
आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद…इन प्रतिक्रियाओं से मुझे और बेहतर लिखने का प्रोत्साहन मिलेगा