दो प्रिये तुम दर्द ऐसा , जो हृदय को रास आऐ ।
है अधर सुकुमार इनको मुसकुरा कर खोल दो ।
श्रुति को परम आनंद आये दो बोल ऐसे बोल दो ।।
सुधि के रहते भी सुधि विहिन हो जाऊं मै घायल होकर ।
पाकर तेरा मधुमय सपर्श जग जाऊं मैं जैसे सोकर ।।
तेरी मधुर मुसकान , बनकर तीर हृदय भेद जाऐ ।
दामिनी बन दमको अंतर में अनुरंजित अंतर को कर दो ।
बिखरा निज हीरक हास वास जीवन में सजीवता भर दो ।।
खुशियों से झूम उठे ये मन इठलाता करता हो नर्तन ।
आशा लहराये जीवन में तम बन जाए दृगों का अंजन ।।
देखकर अभियान तेरा दिल दो घडी को कॉप जाऐ ।
राज कुमार गुप्ता – “राज“
Nice thought……!!
Thanks Nivatiya ji
बहूत ही अलग अंदाज़ मे लिखी गई श्रॄंगार से सराबोर प्रेम रचना. आती उत्तम. पहली और अंतिम लाईन तो वो कह जाती हैं जो सिर्फ होता है
Thanks Shishir Ji for your encouraging words & feeling the essence of poetry.