पवन के संग बहर ही है जो ध्वनि
हृदय के अंतरंग में भी इसकी पहुंच है
वह तो सच्चे मानव की ललकार है
जीवन श्रम की यह अमर जयकार है
लोहे के टुकड़ों से उत्पन्न यह ध्वनि
इसके लय में झूमता है जग सारा
ताल में इसके क्या आकर्षण है
अज्ञात ही खींचता ध्यान हमारा
इसमें निहित है लगन की महिमा
हर छंद निर्मित है शक्ति से
हर ठोकर में कठोरता कितनी
जिंदगी संवरती है इन्हीं ठोकरों से
कितनी सुंदर उपमा देकर मानव को समझाने का जो प्रयास किया तारीफे काबिल है , उम्दा !!
अति सुन्दर रचना जो जीवन में श्रम से मिलने वाली खुशी को व्यक्त करती है व् इसके द्वारा होने वाले परिष्करण को इंगित करती है. इसी तरह का कुछ विचार मैंने अपनी एक प्रकाशित कविता ‘मैं क्या हूँ” में भी व्यक्त किया है. उत्तम जी आप उसे भी अवश्य पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया भेजे. मैं आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार करूँगा.