गूँज जाती है हवाओं में हल्की इसकी चाप भी
छिन जाता है अनायास ये मन उधर अपने आप ही
भले कह लें दस्तक दर पर,बसा यह मन ही में है
विवेक के विरुद्ध जो चले, जाता है दिल काँप भी
कितने जुल्म छिप सकेंगे सब्र के कफन तले
चुभा हो खंजर दिल में, पडती है छाप भी
इस दस्तक के डाक से रहे न हम अजनबी
जीवन की किसी राह पर हुआ था आलाप भी
उमंग उद्वेलित सृजन मन में आनंद का उद्गम तभी
लहर लहर से बन पड़ा सागर का नाप भी
बहुत अच्छी रचना है. अंतिम लाइनों की गहराई को समझने में वक्त लगा. परमानंद तो सागर जैसा विशाल है जिसे केवल लहरों जैसे प्रेम से ही प्राप्त किया जा सकता है.
उत्तम जी बहुत अच्छी रचना, बुराई कितनी भी बलशाली हो अच्छाई के आगे घुटने टेकती नजर आती है !
आपकी शब्द संरचना बहुत प्रभावशाली एव लाजबाब है !!
Thanks