हे प्रिय! जब तुम जुदा होते हो ….
बुँदे भी पलकों से जुदा
होने लगती हैं ये तो मेरी
होकर भी मेरी नही रहती हैं …..
और तो और हाथो की लकीरों
पर गिर कर उन में ही समा जाती हैं ….
लेकिन कभी-कभी तो बुँदे यूँ टूट कर बिखरतीं हैं
मानों मोतियों की लडियां ही टूट कर बिखर गयीं हो …
मैं सहेजना चाहती हूँ इन मोतियों को…..
आँचल में भर कर छुपा लेना चाहती हूँ …..
पर कभी दामन ही छोटा महसूस होने लगता है और कभी …………
आश्चर्य से वशीभूत मैं फिर उसी उद्गम सरिता के पास आ खड़ी होती हूँ
जहां से चलना शुरू किया था …….फिर तुम्हारा जाना ……
मेरा बार-बार ह्रदय पर पत्थर रखना
और हर पत्थर को चीर जल धारा की तरह भावनाओं का भूट आना
और अश्रु धारा का साथ निभाना……. सफ़र ये भी तो अनवरत है जल की धारा की तरह !!
Shweta Misra
Nice. … !
श्वेता विरह से उपजे मन के दर्द को कितने सुंदर शब्द दिए है आपने पढ़कर वह दर्द महसूस होने लगता है. बहुत खूब
विलम्ब के लिए क्षमा चाहती हूँ… आभार आपका उत्साहवर्धन के लिए .. सादर
विरह के मोती बड़ी सुंदरता से शब्द माला में पिरोये है, अति सुंदर रचना !!
विलम्ब के लिए क्षमा चाहती हूँ… आभार उत्साहवर्धन के लिए .. सादर
विलम्ब के लिए क्षमा चाहती हूँ… आभार उत्साहवर्धन के लिए .. सादर