वो जो चांद चमक रहा दूधिया
अपना विरोध करेगा आज
फूट बिखरेगा अंगार बन कर
वह पृथ्वी के मस्तक का साज
मौन रहा वह सारे हादसे भर
मानव घातकता का निर्वाद साक्षी
पहुंच रहा अब उसकी ओर वह
विषाक्त मुखौटों में छिपा आत्म भक्छी
निचोड़ कर नींव अपने यथार्थ की
उगल कर विष की आग
जली प्रकृति जो माँ हमारी
हमारे अस्तित्व की बुनियाद
उत्तम जी जहाँ तक मैं समझ पा रहा हूँ आपने इस रचना में मनुष्य द्वारा किए गए एनवायर्नमेंटल डैमेज के परिपेक्ष्य में बात कही है. यदि ऐसा ही है तो रचना बहुत सुन्दर है. यदि कोई और मतलब है तो कृपया स्पष्ट करे
Aap ne Sahi samjha hai Shishir ji. Ye ek purani kavita hai jo abhi samarpit ki hai.
Aapka abhar hai.
प्रकृति पर हुए आघात एव बदले में विनाशकारी आपदाओं की एयर इंगित करती कविता !!