लोग क्या-क्या बेचते हैं
कोई साज बेचता है
कोई समान बेचता है
कोई जमीन बेचता है
कोई जात बेचता है,
कोई रिश्ता बेचता है
कोई नाता बेचता है
कोई वफ़ा बेचता है
कोई ईमान बेचता है
यहाँ तक की लोग
अपना जमीर बेचते हैं,
मैं देह बेचती हूँ
तो, बुरा क्या है
अपना सब कुछ लुटा के
समाज को बुराई से बचा के
मैं दंश झेलती हूँ
मैं तन बेचतीं हूँ
मैं तन बेचती हूँ।
प्रस्तुतकर्ता – नरेन्द्र कुमार
समाज का सच सटीक सब्दों में !
नरेंद्र जी कविता के द्वारा आपने ज़माने के तथाकथित शरीफों पर दमदार चोट की है
धन्यवाद श्रीमान
कुरीतियों में विवश जमाने की हकीकत बयान करने का नायाब तरीका बहुत अच्छा लगा !!