जो सुनना चाहते हो तुम, जुबां वो कह नही पाती।
जो दिल में आरज़ू है इक, जुबां पर क्यूँ नही आती।।
सामने रोज़ आते हो ख़यालों में हक़ीक़त में।
जो मंज़िल सामने है फिर, राह क्यूँ मिल नही पाती।।
इन आँखों की तमन्ना है दीदार-ए-ख़्वाब करने की।
नींद तो आ भी जायेगी, शाम क्यूँ ढल नही पाती।।
तुम्हारे नूर से मेरी ये आँखें धुल गयीं ऐसे।
की इनमे नाम बस तेरा, मगर तुम पढ़ नही पाती।।
ख़ुदा का शुक्र है ‘आलेख’, मिलाया यूं हमे ऐसे।
न मैं होता न होती तुम, निगाहें मिल नही पाती।।
— अमिताभ ‘आलेख’
वाह रिंकी किस खूबसूरती से आपने बात को रखा है. कविता में प्रेम, तड़प, समाज व प्रेम के दुहाई देने वालो पर व्यंग सब कुछ है वो भी बहुत काम शब्दों में.
अमिताभ गलती से रिंकी जी का पोस्ट तुम पर चला गया. बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है और फिर तुम्हारा अंदाज़
कोई बात नहीं शिशिर जी, कभी कभी हो जाता है ऐसा. आपका तहे दिल से शुक्रिया की आपको मेरा अंदाज़ पसंद आता है.
बेजुबान प्रेम जो बयाँ कर देता है उसको शब्दों में समेत जा सकता, भावनाओ को ह्रदय से महसूस किया जा सकता है !! प्रेम व्यथा का वर्णन करती अच्छी रचना !!
Prem par ek utkrishta rachna. antim chand bahut khoob likha hai.
बहुत बहुत शुक्रिया उत्तम जी सराहना हेतु।