अपनी हालत पे ज़रा तो रहम खाया कीजिए,
मेरी खातिर ही सही पर मुस्कुराया कीजिए।
माना के हैं ग़म बहुत ज़िन्दगी में आपकी,
हमसे मिलकर आप अपना ग़म भुलाया कीजिए।
हमको अपने इश्क़ पे भी है यकीं यूं तो मगर,
आप भी हमको कभी तो आज़माया कीजिए।
आपकी आवाज़ में है कुछ न जाने क्या कशिश,
सुर्ख होठों से कभी हमको बुलाया कीजिए।
हर सितम मंज़ूर है हमको ज़माने का मगर,
आप अपनी शोखियों से बाज़ आया कीजिए।
वक़्त गुज़रेगा तो फिर ये फ़ासले मिट जाएंगे,
आप अपने दिल को थोड़ा तो सम्भाला कीजिए।
मुस्कुराहट का भी है इस हुस्न से कुछ वास्ता,
आप अपने हुस्न को यूं भी संवारा कीजिए।
दास्तान-ए-इश्क़ जब ‘आलेख’ भी न कह सका,
आप अपना वक़्त इसमें अब न ज़ाया कीजिए।
— अमिताभ ‘आलेख’
वाह अमिताभ कया बात है तुम अपनी ग़ज़लों का एक संग्रह छपवाने के बारे मे गम्भीरता से सोचो
बहुत बहुत शुक्रिया शिशिर जी इन अनमोल तारीफ का. प्रयास जारी है, जब भी दिल को महसूस होगा की कुछ छपवाने लायक लिखा है तो ज़रुर सोचूंगा इस बारे में. अभी तो शुरुआत है बहुत कुछ सीखना है.
अनेक धन्यवाद आपका इतनी तारीफ के लिए. मुझे ख़ुशी है की आपको मेरी ग़ज़लें पसंद आती हैं.
दिलबर को रिझाने की एक कामयाब कोशिश !!
कमाल का शायराना अंदाज है आपका !!
इज्ज़त अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया धर्मेन्द्र जी.