कभी कश्तियों की निगाह से समन्दरों को तक़ा करो।
एक मौज में है डूबना एक मौज में फिर ज़िंदगी।।
वो ‘दिया’ था उसने भी एक रोज़ कहा था अपनी ‘लौ’ से ये।
ग़र तू नहीं जो साथ तो कुछ भी नही ये ज़िन्दगी।।
क्या हवा चली थी वहां कोई वो कौन सा था धुंआ उठा।
वो क्या हुआ था शहर में क्यूँ जल गयी एक ज़िन्दगी।।
जो गौर से देखो अगर हर क़ौम में भी है ज़िन्दगी।
फिर ज़िन्दगी से लड़ रही है आज क्यूँ ये ज़िन्दगी।।
वो तेरा करम वो तेरी दुआ ‘आलेख’ सब रह जायेगा।
एक बार ग़र जो चली गयी फिर हाथ से ये ज़िन्दगी।।
— अमिताभ ‘आलेख’
अमिताभ इस रचना में आज़िज़ आ जाने वाला दर्द है. गहराई है. सवाल हैं. दिया और बाती पर मेरी एक रचना पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर भेजना. कुछ तुम्हारी तरह का ही मैंने उसमे कहा है. मुझे इंतज़ार रहेगा.
बहुत शुक्रिया शिशिर जी इतनी बेहतरीन तारीफ के लिए. ज़रूर प्रतिक्रिया दूंगा !!
बहुत उम्दा, वर्तमान परिस्थितियों की मनोव्यथा के दर्द को समेटे हुए अच्छी ग़ज़ल !!
दूसरे शेर i ये। शब्द जोड़ने की आवश्यकता नही है !
बहुत बहुत धन्यवाद आपके इन मोहित शब्दों के लिए धर्मेन्द्र जी.
मेरे ख़याल से लय की ज़रुरत को देखते हुए “ये” लगा दें तो कोई ख़ास फर्क भी नहीं पड़ेगा. वैसे मैं अपनी हर ग़ज़ल को लय में ही लिखने का प्रयास करता हूँ. उस से ग़ज़ल का meter एकदम दुरुस्त रहता है.
सुझाव हेतु आभार.
अमिताभ जी, निसंदेह आपकी प्रत्येक रचना पूर्णतया लयबद्ध व् सजीली होती है !
यंहा पर “से” और “ये” दोनों से एक ही समावेशी एवं अपेक्षित है !
आपके स्नेह का आभारी !!
धर्मेन्द्र जी, किन्तु मुझे लगता है की यहाँ पर “से” और “ये” दोनों का पर्याय भिन्न है. “ये” शब्द यहाँ पर शेर के अगले मिसरे को संबोधित कर रहा है. धन्यवाद !
यथोचित !!
मेरी आज की रचनाओ पर आपकी प्रतिक्रियाओ का आकांशी
अमिताभ जी ,बहुत ही खूबसूरत रचना । कुछ ही शब्दों में बहुत कुछ कह डाला आप ने ।
शुक्रिया बिमला जी.
Abhiwyakti me nayapan hai. Bahut sundar rachna hai.
बहुत बहुत शुक्रिया उत्तम जी आपकी इस इज़्ज़त अफ़ज़ाई के लिए।
धन्यवाद।