मेरे पापा के है रूप अनूप,
पापा के कारण है मेरा यह स्वरूप।
सच्ची राह पर पापा चलना सिखाते,
डगमगाते कदम मेरे है वो सुल्झाते।
बचपन मे जब सीखा था चलना मैने,
गिरने से थामा पापा ने पहले।
पापा कभी ना करते कोई भूल,
ले जाते रोजाना सुबहा मुझे वह स्कूल।
ना जाने कब हो गया मै बडा,
खेलते कूदते पापा के कन्धो पर खडा।
आज अव्वल आ रहे है मेरे नम्बर,
पापा के मार्गदर्शन के कारण ही बन रहा हू धुरन्धर।
डगमगाते कदम लेते है मेरे थाम,
उनके चरणॉ मे ही है काशी मथुरा चारो धाम।
पिता के प्रति अपनी श्रद्धा को समर्पित करने का अच्छा प्रयास !!
लेखन में शब्द संयोजन एव लय की और ध्यान देने की आवश्यकता है !!
धन्यवाद
अच्छा प्रयास है.
धन्यवाद मधुकर जी