एक बार यूं ही तकल्लुफ़ी में सलाह उसको मैं दे गया।
मेरा नाम लिख रहा है वो हर शै पे तब से रात दिन।।
सूरज भी सो गया है अब और चाँद है बुझा बुझा।
हर शख़्स है डरा हुआ इस शहर में अब रात दिन।।
यादें हैं तेरी बेशुमार सांसों के वास्ते मेरी।
चलती है ज़िन्दगी भी अब इनसे ही मेरी रात दिन।।
वो लिहाफ़ ओढ़ के सो गयी अब उम्र उसकी भी हो चली।
बच्चे झुलाया करती थी खुद जाग कर जो रात दिन।।
जब यार से वो बिछड़ गया तो क़लम से फिर वो हुआ क़रीब।
यूं ग़ज़ल लिखे है ‘आलेख’ अब हर वक़्त और हर रात दिन।।
— अमिताभ ‘आलेख’
अति सुन्दर …….!!
शुक्रिया |
वाह अमिताभ बहुत अलग रचना है.
बहुत बहुत शुक्रिया शिशिर जी.