देखा अंदाज़-ए-बयाँ जब उसका।
हमको अपने पे यूं मलाल हुआ।।
दास्ताँ उसने कुछ अदा से कही।
बज़्म-ए-अशआर में शुमार हुआ।।
क़त्ल का कोई सामां न था फिर भी।
निगाह-ए-तीर से रौशन ये कमाल हुआ।।
निकल पड़ा है जलाने दिये वो तूफ़ाँ में।
मौत से उसका भी अब करार हुआ।।
मचल रहा था ‘आलेख’ हवा में उड़ने को।
क़ैद था जिस्म में जो अब फ़रार हुआ।।
— अमिताभ ‘आलेख’
अमिताभ अंतिम शेर मे जो कहना चाह रहे हो कुछ और बेहतर कर सकते हो.
धन्यवाद शिशिर जी।
सुझाव हेतु आभार। प्रयास करूंगा।
शेर बहुत अच्छे है, ‘शिशिर जी का सुझाव सराहनीय है !!
बहुत शुक्रिया धर्मेन्द्र जी, शिशिर जी के सुझाव अनुसार प्रयास किया गया है.
अब इस से अच्छा नहीं कह पायूँगा इस जगह. शिशिर जी को भी धन्यवाद.
गुस्ताखी माफ़ अंतिम शेर को ग़ज़ल से मिलाते हुए अपने शब्दों में पेश करने की नाकाम कोशिश कर रहा हूँ !!
मचल रहा कब से ‘आलेख’ हवा में उड़ने को
उड़ने से पहले गिद्धों की नजर का शिकार हुआ !!
अरे गुस्ताखी कैसी धर्मेन्द्र जी. वैसे प्रयास बहुत अच्छा है आपका.