देदीप्यमान जब सूर्य चमक
था रहा क्षितिज के ऑंगन मेै
थी धूल सुनहरी बरस रही
श्यापमल घाटी के प्रांगण में
थीं अंतरिक्षगामी किरणें
थोड़ी-थोड़ी सी थकी हुईं
बैठी चिनार की फुनगी पर
हिम-घाटी में भी कहीं कहीं
आकाश ऑंख को फाड़-फाड़
कर देख रहा था विस्मय से
कब उसने था क्या गिरा दिया
स्वर्ग का ठुकड़ा ऑंचल से !
फैली हरीतिमा की चादर
हिमखंडों से थी घिरी हुई
निर्झरिणी कल-कल कर बहती
यौवन मद में उन्मत्त हुई
डल-झील शांत कैनवास एक
चित्रण नौकाएँ करती थीं
आड़ी-तिरछी रेखाओं से
मांग उसीकी भरती थीं !
सबसे उॅंचा गिरि के उपर
जर्जर मंदिर था देख रहा
अपनी बूढ़ी ऑखों से वह
सौंदर्य प्रकृति का परख रहा।
सौंदर्य फूट जब पड़ता था
हवाएँ भी थीं दम साधे
एैसे ही उस संध्या बेला में
तेज बवंडर था आया।
पश्चिम कोने आकाश मध्य
काले धब्बे थे गहराये
छाया चीलों की देख समझ
वयु-सैनिक के मन थे लहराये !
कुछ ने समझा था चील उन्हें
कुछ ने पतंग था बतलाया
पर सैनिक था रडार समक्ष
वह ‘‘सावधान’’ था चिल्लाया
‘‘यह नहीं चील की है छाया
है नहीं पतंग कहीं का भी
यह तो है अरि का वायुयान
बमवर्शक और लड़ाकू भी।‘’
फिर हुआ समर का शंखनाद
पल भी है नहीं गॅंवाने का
अब योद्धाओं की है बारी
अब काम नहीं घबराने का !
निर्मलजीत युवक योद्धा
था रन-वे पर तैयार खड़ा
आनन-फानन में ही वह तो
युद्धक विमान में जा बैठा
अपने विमान को लेकर वह
क्षण में आकाष चूमता था
‘‘है कहॉं दुश्मानों का बेड़ा’’
वह बारंबार गरजता था।
दुष्मन का बमवर्शक विमान
रन-वे पर सीधे आ पहुँचा
बम बरसा कर वह निकल गया
निर्मल का साथी उड़ न सका,
निर्मल था सब कुछ देख रहा
उपर से आ वह कूद पड़ा
अरि के तीनों विमान समक्ष
काल बन कर वह आ पहुँचा !
थे आष्चर्यचकित सारे दुष्मन
यह काल कहॉं से आ पहुँचा
निर्मल अपना विमान लेकर
उनके पीछे था जा पहुँचा,
पल में उसकी तोपें गरजीं
आकाष बीच विस्फोट हुआ
अब निर्मल ने अपना विमान
दूजे के पीछे लगा दिया,
फिर एक बार कुछ बटन दबे
फिर राकेट औ’ बंदूक चली
निर्मल के स्थिर हाथों से
दुष्मन ने फिर खाई मुँह की।
आकाष जरा जब साफ हुआ
निर्मल ने दृश्टि को ताना
कुछ दूर एक दुश्म्न विमान
उसकी ऑंखों ने पहचाना।
था वीर, भला कब डरता था
भय भी उससे भय खाता था
फिर एक बार दृढ़ निष्चय कर
अरि के समक्ष वह जा पहुँचा।
नियति ने यहीं किया धोखा
दुष्मन ने कुछ पलटा खाया
निर्मल की बंदूकें फिर गरजीं
दुष्मन ने भी राकेट दागा
तीसरे अरि का वायुयान
क्षतिग्रस्त हुआ, वह भाग पड़ा
कुछ दूर उड़ा वह लॅंगड़ा कर
धरती पर जा फिर ध्वस्त हुआ।
पर यह क्या अरे! उसी क्षण ही
आकाष बीच विस्फोट हुआ
क्षतिग्रस्त हुआ निर्मल का विमान
योद्धा का तप था पूर्ण हुआ !
स्वर्णिम किरणों का ओढ़ कफन
आरूढ़ हुआ स्वर्णिम रथ पर
दिव्य से मिलने को आज चली
दिव्य की ही प्रखर किरण !
तुम परमवीर निर्मल सेखों
निर्मल पंचनद के सपूत
भारत माता का एक लाल
इस युग के थे तुम पुनीत पूत।
वीरोचित मृत्यु तुम्हारी यह
सबका ही लक्ष्य बने जग में
भारत माता की रक्षा में
परमावीर तुम खेत रहे !
तुमको मेरा शत – शत प्रणाम!
धरती भी धन्य हुई तुमसे
जिस मां ने तुमको जन्म दिया
हम सभी उसीके ऋणी रहे !
———————————————-लालजी वर्मा
प्रकाशित भा. वायु सेना पत्रिका, अंक 11 मार्च 1995
अत्यंत सुन्दर. देश प्रेम व वीरता से भरी रचना
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