कैसी रही होगी वो रात ,
जब सिद्धार्थ ने छोड़ा यशोधरा का हाथ |
जन्म-जन्मान्तर का गठबन्धन ,
पितृ धर्म का महान बन्धन||
किन्तु – परन्तु , उचित – अनुचित ,
डिगे नही सिद्धार्थ कदाचित् |
जीवन स्वयं यक्ष प्रश्न है ,
मोक्ष शुक्ल और मृत्यु कृष्ण है ||
स्वर्णाभूषण और भोग विलास ,
मिथ्या दंभ और उल्लास ||
तुच्छ , निरर्थक , निन्द्य प्रलाप ,
विश्व विजय का महा प्रताप ||
ऐसा ही कुछ सोचा होगा ,
समझा होगा , जाना होगा |
राजप्रासाद की ड्योढ़ी लांघी ,
गौतम के भीतर कदम रखा ||
राजपुरुष की मृत्यु हुई ,
रोम-रोम सन्यास पगा ||
किन्तु-
वीर शिरोमणि सिद्धार्थ नही ,
क्षत्राणी थी यशोधरा |
राहुल को भर अंकवारी ,
निद्रा का था स्वांग धरा ||
उन्हें अवश्य था एहसास
स्वामी ह्रदय न बसे सुवास ||
वो निकल पड़े है उस पथ पर ,
जिस पथ का कोई छोर नहीं |
उनको तो ईश्वर मिल जाएंगे ,
हम दोनों का कोई और नहीं ||
हम अनाथ , वो जगन्नाथ ,
विचित्र विषाद का अट्टहास ||
गौतम की उस अमर कृत्य की ,
साधुवाद हो या हो प्रतिवाद |
पुण्य धरा की वीर सपूती के
मन को है अवसाद ||
किंचित ही मैं उन्हें रोकती ,
या राहुल उनको भरमाते |
थाल सजाकर तिलक लगाती ,
सखी वो मुझसे कहकर जाते
सखी वो मुझसे कहकर जाते …………
इस रचना हेतु अनेक बधाई. बहुत उत्तम रचना.
अति प्रचलित कहावत है की किसी भी पुरुष को महान बनाने में नारी का महत्वपूर्ण भूमिका होती है !!
वास्तव में नारी ही समाज की धोतक है !!
रचना अति सुंदर एव प्रभावशाली है…… इसके लिए बधाई के पात्र है !!
सुशील जी बहुत ही खूबसूरत रचना है. मैंने भी बुद्ध के जीवन पर एक रचना “बुद्ध की शरण” लिखी है जो इसी वेब साइट पर प्रकाशित भी कर चुका हूँ. आपसे प्रार्थना है कि कृपया उसे पढ़कर अपने विचार जरूर भेजें.