वो ही दिल, वो ही मोहब्बत, वो ही आरज़ू ,
फिर तेरी निगाहें क्यों बदल गयी
मंजिल तो एक ही थी हम दोनों की
तो फिर तेरी राहें क्यों बदल गयी
वो ही कसमे वो ही वादे वो ही नाते
फिर तेरी चाहत क्यों बदल गयी
मूर्त एक दूसरे की थी दोनों के दिल में
फिर तेरी इबादत क्यों बदल गयी
वो ही शहर वो ही लोग वो ही गलियाँ
मेरी वफ़ा के बदले, तू वेबफ़ा में क्यों बदल गयी
जमीं और आस्मां तो एक ही थे दोनों के
फिर ये बादल और घटायें क्यों बदल गयी
वो ही लहरें वो ही समंदर वो ही हमसफ़र
फिर ये किनारे क्यों बदल गए
जब कसमे खायी थी साथ निभाने की
तो फिर ये सहारे क्यों बदल गए
हितेश कुमार शर्मा
हकीकत वयां करती एक अच्छी कविता
वाह हितेश जी अति सुन्दर रचना. मन की वेदना को बहुत सुन्दर तरीके से शब्द दिए है आपने.
काफी अच्छा लिखा है हितेश जी
प्रोत्साहन के लिए आप सब का बहुत धन्यवाद
ह्रदय की वेदना से भरपूर कमाल की रचना !! बहुत अच्छे हितेश जी !!