मेरी साँसों का अंतिम स्वर ,
मेरा काय गायेगा खुद बहकर
थम जाएगी फिर स्वर धारा-
आहत होगा क्या जग सारा ?
मेरी साँसों से गुंजित सितार
थम जायेगा फिर मान हार,
जीवन पय का अमृत प्याला
सांस गुंथी मोती सी माला
काल मिटा देगा इन सबको
सांत्वना दूँ क्या अब मन को;
लक्ष्य नहीं और लाभ नहीं,
मिटटी से बने और अंत वहीँ।
मेरी उड़ान, मेरे विचार
जल जायेंगे मेरे विकार ।
जकडेगा मुझे जब काल-पाश
रोकेगा मुझे क्या प्रेम-पाश;
हार जायेंगे बंधन सारे
ये सब जो आभूषण धारे
यहीं कहीं रह जायेंगे सब
सम्पदा का क्या मोल कहो तब!
का पुरुषार्थ, क्या धर्म विचार
नहीं कोई बस जग है सार
आत्मसंतुष्टि देनी मन को
ढांढस देना है कुछ तन को।
वे मनुष्य समय जिनसे हारा
सत्य कहा, बदला जग सारा
नहीं रहे जब वो ही बैठे
और कोई यहाँ कैसे पैठे ;
अस्तित्व नहीं कुछ सार नहीं
जीवात्मा नहीं परलोक नहीं ।
मन मस्तिष्क का साथ नहीं
पूरा सत्य पर हाथ नहीं ।
जग को क्या सोचूं क्या मानूं
किसको मैं परमपिता मानूं ;
रहस्य गूढ़ है, अस्थिर भी,
कैसे करूँ में मत स्थिर ही;
-औचित्य कुमार सिंह
Auchitya, manushya ke dwand ka bahut hi sunder chitran kiya hai aapne. Ant me jo sawal ubhra hai uska jawaab to hame hi khojna hai jo mere vichaar se aur kuch nahi bus apni budhi ko sthir karne me nihit hai.
धन्यवाद शिशिर जी ।
सुन्दर कृति…..दो पंक्तिया इस खूबसूरत कृति पर न्यौछावर |
उपहार आत्मा को, ख़ैरात ये तन है …..
जीव परीक्षा के भंवर में, सफ़ीना चित्त मन है |
धन्यवाद रोशन जी । सहृदयता के लिए आभार ।
“मन मस्तिष्क का साथ नहीं
पूरा सत्य पर हाथ नहीं ।”
मनुष्य की मनोदशा का सटीक उदहारण !! बहुत अच्छे !!
Dhanyawad nivatiyan ji