यह कविता मैंने अपनी छोटी बहन जिसका नाम राखी है के लिए तब लिखी थी जब वो कई सालों बाद एक ही शहर मे रह्ते हुए राखी के पर्व पर मेरे घर आई.
भाई-बह्न का त्यौहार राखी
लेकिन प्रेम नहीं है बाकी
बोझ बने ऐसे रिश्तों को
कोई आखिर कब तक ढोए.
उजड़ा बाग़ है सुखी मिट्टी
कोई सन्देश ना कोई चिठ्ठी
टूटी माला के बिखरे मनके
एक धागे में कौन पिरोए .
दर्द में आँसू आते है
हमदर्द के आँसू आते है
पानी ना हो जब आँखों में
संग आँसू वो कैसे रोए.
जाने ये कैसी फ़ितरत है
अपनी भी ऐसे किस्मत है
टूटे कन्धों को मिले सहारे
और हम रिश्तों की लाशें ढोए.
हाथों को बालों में डाले
मधुकर देखे ये खेल निराले
सोचे इतनी उठा पटक का
अंत भला कभी तो होए.
शिशिर “मधुकर”
बहन से मिलने की बेचैनी बहुत अच्छे लफ़्ज़ों में बयाँ करी है शिशिर जी.
अपनो के दर्द को समझके के लिए शुक्रिया. ये दर्द ही तो हम कवियो की सम्पत्ति है.
Maya ke bandhan me jakad ke hum rishton ko nibhana bhhol jate hain. Fir jab rishton ki kami khalti hai to jivan se witrishna hone lagti hai.
Sundar kavita ke liye abhiwadan
धन्यवाद उत्तम जी सराह्ना के लिए ओर कविता की भावना को रेखान्कित करने के लिए
भाई बहन का रिश्ता सबसे निराला होता है, इनके गुस्से में भी अटूट प्यार होता है, इस सम्मानीय रिश्ते को मजबूत पकड़ के लिए हार्दिक बधाई !!
बहन की और से मेरा नजराना स्वीकार करे !!
“ये बहन तेरी भैया बिन तुम्हारे अधूरी है
न मिल सकी समय से समझो मज़बूरी है”
बहुत बहुत धन्यवाद निवातिया जी आपके शब्दो के लिए.