शक्ल से भद्दा, बदसूरत हूँ मै
मन-विचारो से नहीं वैसा हूँ मै
जानना चाहो गर मेरी हकीकत
एक बार रूबरू होकर तो देखो !!
रहन – सहन मेरा सीधा सादा
अच्छी खिदमत का नही कोई वादा
न दे सकूँ इज़्ज़त ऐसा बेगैरत नही
एक बार द्वारे पर आकर तो देखो !!
गाडी, बंगले, मेरे पास नहीं
धन – दौलत बेशुमार नहीं
देखनी है तो, दिल की अमीरी देख
एक बार इस में बसकर तो देखो !!
पढ़ा लिखा हूँ, पर बुद्धिमान नही
करता मुझ पर कोई अभिमान नही
शख्सियत मेरी पहचानने से पहले
कुछ पल संग संग बिताकर तो देखो !!
खुद में मस्त हूँ, जग से काम नही
शायद इसलिए चर्चे मेरे आम नही
न समझो मुझे खुदगर्ज बिन जाने
कितना मिलनसार हूँ, जरा मिलकर तो देखो !!
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[[____डी. के. निवातियाँ ______]]
सुन्दर रचना । वाकई में सबकी दो सख्शियते हैं । उनमे से ही हमारा मैं उभरता है ।
शुक्रिया, औचित्य जी !!
इस कविता के बारे में मैंने आपको कल लिखा था. शायद कल इस पर प्रतिक्रिया बंद थी. एक पुराने आम एवं संस्कारी भारतवासी के चरित्र/दर्शन का बहुत सुन्दर चित्रण करती है यह रचना. वक्त ने हालांकि उसके व्यवहार में बहुत अंतर ला दिया है. औचित्य की विवेचना भी अपने स्थान पर सही है.
शिशिर जी हार्दिक आभार !!
एक बार रूबरू होकर तो देखो ……. बहुत ही अच्छी लाइन
धन्यवाद मित्र !!