इतना दर्द सहा है,
की अब उठने की क्षमता नहीं ।
दिल है कह रहा कबसे,
कि बस कर, रुक जा वहीं ।
दर्द से बेहाल ह्रदय,
रो-रो कर रब से,
माफी मांग रहा है,
कह रहा कि अब छोड़ दो मुझे।
अश्क़ों की नदियाँ ,
बह रही हैं इन पलकों से।
अब सहन-शीलता का रब,
ले रहा है इम्तेहान बरसों से।
इन अश्क़ों को रोकना,
थोड़ा मुश्किल है।
क्योंकि ज़िंदगी में जो कमी है,
यह अश्क़ उनके हैं नतीजे।
कभी दर्द-भरी,
तो कभी घम के आसूँ ,
ऐसे हैं प्रकार इसके,
मगर खुशी के अश्क़ों को देखने के लिए, हर दम मैं तरसूं ।
कभी तो वह भी थकेगा,
घम देते-देते।
इन पलकों में थोड़ा सा,
भर देगा अश्क़ खुशी के।
बहुत सुन्दर रचना है. वक्त की यही तो खासियत है की वो कभी भी एक सा नहीं रहता. जो आज खुश है वो ये सोचता है कि ऐसा ही समय बना रहे और जो आज दुखी है वो सोचता है कि अच्छा समय भी आएगा.
अतीत और भावी दो किनारे होते है जिनके मध्य वर्तमान की नदी बहती है यही जीवन का सार है !!
अति सुन्दर कृतिका !!