चारों तरफ चीथड़े , मांस के लोथड़े फैले हैं
दूर तक फैली निस्तब्ध भूमि,
घुटनों से अक्षम उम्मीदें ,
जीवन की पुरानी उम्मीदें, मेरा मन
सभी भयभीत हैं ।
विस्फोट हुआ है –
मगर फिर भी कहीं कोई प्रसन्न है,
ठहाके लगा रहा है ।
सूनी गोदें, सूने आँचल,
कुछ सहृदय मन
और मानवता
आंसुओं से भीग रहे हैं ।
अमंगल का वर्चस्व है , स्वार्थ फल फूल रहा है
निर्दोष प्राण जल रहे हैं ,
फिर भी इन विस्फोटों पागलपन से
कोई खुश है।
विस्फोट हुआ है।
– औचित्य कुमार सिंह (16.07.2006)
आज के मानव और समाज की संवेदनहीनता को उकेरती भावुक रचना. इसी संवेदना के उदय ने सम्राट अशोक को अशोक महान बना दिया.
अज्ञेय कहते हैं की रचना रचनाकार की विवशता है। अपनी अनुभूतियों का साधारणीकरण कर वो शांति पाता रहता है। ऐसे में बहुत बार महसूस होता है कि रचनाकार (हाँ मुझ जैसा तुच्छ भी ) कहीं झूठे ही तो सुनसान में नहीं चिल्ला रहा। ऐसे में मधुकर जी की टिपण्णी संजीवनी की तरह काम करती है।
मानवीय मूल्य किस स्तर तक गिर चुके है विषय को मुखर करती मार्मिक रचना !!
जब लिखी थी तब किसी आतंकवादी घटना से सीधे अर्थो में लिखते लिखते ख्याल आया कि पागलपन हमारे लिए झूठा है नाश का, करने वाले के लिए । वो अपने आप में क्रन्तिकारी महसूस करता है। जीत महसूस करता है। विस्फोट ये नहीं है कि चीथड़े उड़े हैं । विस्फोट है कि किसी दूसरे के दर्द में किसी की मुखर प्रसन्नता आ गयी है। निवतियां जी को मुझे समझने का सादर आभार।